Thursday, July 8, 2010

यह वक्त भी कितना अजीब है,
जब चाहती हूँ की धीमे से गुजरे,
तब भागता है जैसे पीछे कोई आग लगी हो,

और जब चाहती हूँ की जल्दी बीत जाये,
तब चलता है की जैसे लोहे की ढेर सारी जंजीरे बाँधी हो पाव मैं..

पिछला साल कुछ ऐसा था
चुटकी से यूं गुजरा, पता न चला

मन कर रहा था की थोड़ा रूक जाऊं,
पीछे मुड़कर देखूं
कितना रास्ता काट दिया,
देखते देखते कहाँ तक चली आयी हूँ में

क्या पाया क्या खोया
हिसाब करने जो बैठी
हाँ, पाए जरूर कुछ चुभे हुए कांटे 
लेकिन हाथों मैं कुछ खिले फूल भी थे

जब देखा आईने में ,
पहचान न सकी खुद ही को,
सचमुच कितनी बदल गयी हूँ मैं?
खुद को पहचानना भी तो धीरे धीरे सीख लिया है
पहले तो वह भी न जानती थी

जुगनुओं से  चमचमाती रात तो देख ली,
अँधेरे से न डरना न सीख पायी,
जाड़े की धुप का मजा तो चख लिया
माँ के हाथों की नरमी न भुला पायी

अब भी दिल चाहता है कभी कभी
जाके माँ के गोद में सर रखकर आराम से सो जाऊं
लेकिन जिंदगी ने जैसे रोक रखा है मुझ को
अब तो यादो पर ही गुजारा करना होगा..

अब नजर आ रही है एक अपनी खुद की जिंदगी,
अपनी छोटीसी दुनिया अब मुझे पुकार रही है,
अब तक तो बस सपने ही थे,
सच में उड़ना अब जान रही हूँ मैं

आगे क्या होगा पता नहीं,
रास्ता कैसा होगा मालूम नहीं,
सोचती हूँ, कड़ी धूप में चाहे गुजरना लगे
थोडीसी छाव का सहारा अगर मिल जाए तो काफी है..

4 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना है - मगर माँ की गोद - कौन भूल सकता है? बहुत भाव-भीनी रचना - अँधेरे से डरना न सीखा जाए जब तक,तबा तक ही जिंदगी बचपन सी खुश रहती और गुज़रती है. बधाई अच्छे लेखन के लिए!

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  2. i forgot to mention - that the graphic in the title bar is marvellous - it creates the mood, the ambience - just the right feel! Great!!

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  3. wowwww.. yar amazing poem..!!tune to marathi likhte likhte hindi me bhi expertise kar lia..
    poem kaafi apni-apni si lag rahi hai..too true!!!

    BTW
    template + the picture in title bar + the headline
    impressed by all the 3 .. :-)

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  4. @ himanshu ji: thanks a lot!! I just wrote what I felt :-)

    @ Deep: Thanku thanku, lekin expert to tu hai.. main to abhi seekh rahi hoon :p

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