Monday, July 18, 2011

नक़ाब


कितने सारे नक़ाब पहन रखे है मैने
चाहा की फ़ेंक दूं सब उतारके कहीं तो

जब करने लगी ऐसा तो जाना
एक एक नक़ाब मेरा एक एक रुप था
कितने सारे चेहरे लेकर घूमती हूं मै
हर एक का अपना अपना रंग था

उन सारे नक़ाबों के तले छुपा
आखिर वह एक सामने आया,
भूला-सा, बिसरा-सा था वह
खुद से कई तरह से अलग पाया

वो जो कभी मेरी पहचान हुआ करता था
आज मेरे लिये अजनबी बन गया है
या फिर किसी नये रंग-रूप के खातीर
मैने ही किसी और हस्ती से रिश्ता सजाया है

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चढा दिये फिर सारे एक एक कर के
अब इसी चेहरे की आदत सी हो गयी है।